निशोथ के फायदे और नुकसान – Nishoth ke Fayde aur Nuksan in Hindi

Last Updated on December 26, 2020 by admin

निशोथ क्या है ? (What is Nishoth in Hindi)

निशोथ एक आयुर्वेदिक वनस्पति है। सुश्रुतसंहिता में श्यामादिगण एवं श्लेष्मसंशमन वर्ग के अन्तर्गत निशोथ (त्रिवृत्) का उल्लेख किया गया है। अष्टागसंग्रह एवं अष्टांगहृदय में विरेचनीय गण तथा निरूहगणों में निशोथ को लिखा गया है।
भावप्रकाश निघण्टु के गूडूच्यादि वर्ग में इसका वर्णन मिलता है। आयुर्वेदाचार्यों ने सुख विरेचन द्रव्यों के अन्तर्गत इसका विषद वर्णन किया है।

निशोथ का विभिन्न भाषाओं में नाम (Name of Nishoth in Different Languages)

Nishoth in –

  • संस्कृत (Sanskrit) – त्रिवृत्, त्रिवृता, त्रिपुटा, त्रिवेला,त्रिभण्डी, सरसा, सुबहा, सर्वानुभूति।
  • हिन्दी (Hindi) – निशोथ, निशोत, पित्तोहरी ।
  • गुजराती (Gujarati) – निसोतर।
  • मराठी (Marathi) – निशोत्तर, तेड़।
  • बंगाली (Bangali) – तेउड़ी, तेओड़ी, पिथोरी।
  • पंजाबी (Punjabi) – तिरवी,चितवऊस।
  • सिन्धी (Sindhi) – तिरिस्सवलु।
  • तामिल (Tamil) – शिवदै, चिवते।
  • तेलगु (Telugu) – तेगड़, पेगड़।
  • मलयालम (Malayalam) – चिवक, तकोल्पथोन्न।
  • कन्नड़ (kannada) – विलितिगड़े ।
  • उडिया (Udiya) – दुधोलोमी।
  • अरबी (Arbi) – तुबुर्द ।
  • अंग्रेजी (English) – टथ (Turpeth), इण्डियन जालप (Indian Jalap) ।
  • लैटिन (Latin) – ओपर्युलिना टर्पथम (Operculina Turpethum)।

निशोथ का पौधा कहां पाया या उगाया जाता है ? :

निशोथ भारतवर्ष में प्रायः सभी प्रान्तों में यह मिलती है। परन्तु अधिक ऊंचाई (तीन हजार फीट की ऊंचाई से अधिक) पर यह नहीं होती। आर्द्रता वाली भूमि में यह अधिक होती है।

निशोथ का पौधा कैसा होता है ? :

  • निशोथ की बेल – निशोथ की बड़ी, बहुवर्षायु सदुग्ध लता (बेल) होती है। इसका काण्ड (तना) व उससे निकलने वाली शाखऐं त्रिकोणाकार होती हैं। इसपर लम्बाई में धारियां पाई जाती हैं। काण्ड रोमश होता है ।
  • निशोथ के पत्ते – निशोथ के पत्र 2 से 5 इंच लम्बे होते हैं। नीचे के भाग में पाये जाने वाले पत्र ताम्बूल (पान) के समान हृदयाकार होते हैं। परन्तु ऊपर के भाग में पाये जाने वाले पत्र लम्बे व पतले होते हैं । पत्र दूरी-दूरी पर लगते हैं।
  • निशोथ के फूल – निशोथ की पुष्प मंजरी1 से 4 इंच लम्बी 3-5 शाखा युक्त होती है। जिसमें घंटिकाकार श्वेत पुष्प लगते हैं। कोणपुष्पक एक इंच लम्बे, आयताकार प्रायः गुलाबी, कलियांयुक्त होते हैं। बहिर्दल नलिका 1.5 इंच लम्बी और 1.5 इंच व्यास की होती है। परागाशय ऐंठे हुए होते हैं।
  • निशोथ के फल – निशोथ के फल गोलाकृति लिये हुये होते हैं। एक फल के अन्दर प्रायः 4 बीज पाये जाते हैं। बीजों का रंग काला होता है। ये आकृति में त्रिकोणाकार होते हैं। फल बीच में फट जाता है, जिससे गोलाकार पारदर्शक द्विकोष्ठीय अन्तर्मज्जा दीखने लगती है।
  • निशोथ की जड़ – इसका मूल लम्बा व शाखायुक्त होता है। हरी अवस्था में इसे तोड़ने पर दुग्धवत एक तरल पदार्थ निकलता है। इसी में विरेचन की शक्ति होती है। इसलिए इसके मूल का ही विशेष रूप से प्रयोग होता है। आर्द्रावस्था में जो दुग्धवत् तरल होता है वही सूखने पर राल की तरह जम जाता है। मूल की त्वचा पतली और आर्द्रावस्था में सरलता से पृथक हो जाती है। यदि मूल को चौड़ाई में छेद लें तो निम्न रचना दिखलाई देती है –
  1. बाह्य भाग – यह भाग बहुत पतली त्वचा वाला होता हैं मृदु स्पर्श वाला होता है। इसका वर्ण कुछ श्वेत होता है।
  2. मध्य भाग – इस भाग में बहुत स्रोतस पाये जाते हैं। इस भाग का वर्ण श्वेताभ होता है। चिकित्सा में इसका व बाह्यभाग का ही उपयोग होता है। यह भाग इसकी आभ्यान्तर त्वचा कहलाता है।
  3. अन्तः भाग – यह कठिन स्पर्श वाला काष्ठमय भाग है। चिकित्सा की दृष्टि से यह अनुपयोगी है। यह अधिक सौत्रिक है व कठिन सूत्रों से बना होता है। यह गोलाकृति दिखाई देता है।

निशोथ के प्रकार :

विरेचन द्रव्यों में निशोथ को प्रमुख कहा है। श्वेत निशोथ एवं श्याम निशोथ दोनों का ही इनमें वर्णन मिलता है। अतः यह सुनिश्चित है कि निशोथ (त्रिवृत) के दो भेद होते हैं और विरेचन के लिए इसकी मूलत्वक को उपयोग में लाने का ही विधान है ।

कृष्ण निशोथ का मूल श्यामवर्ण एवं श्वेत निशोथ का मूल अरुणाभ श्वेत होता है, अतः श्वेत और कृष्ण ही निशोथ (त्रिवृत्) के दो भेद किये गये हैं। वर्ण भेदों में असमानता का उल्लेख इसके पुष्प या मूल वर्ण के कारण हुआ है। वस्तुतः Operculona Turpethum ही श्वेत निशोथ है और इसका ही अधिक प्रयोग होता है।

काली निशोथ (त्रिवृत्) श्वेत् की अपेक्षा हीन गुण, तीव्र, विरेचक, मूर्छा,दाह, मद व भ्रम आदि उपद्रवों को उत्पन्न करने वाली है। अतः चिकित्सक इसका प्रयोग नहीं करते हैं। कहीं-कहीं कफप्रधान, उदररोग, ज्वर शोथ, पाण्डु, व प्लीहावृद्धि में इसका सावधानी पूर्वक प्रयोग करते हैं।

निशोथ का संग्रह एवं संरक्षण :

चरक संहिता के अनुसार जिस दिन इसकी जड़ उखाड़नी हो, उस दिन उपवास रखकर, संयमी व एकाग्रचित हो शुभ्रवस्त्र धारण कर शीतकाल के शुक्ल पक्ष में उखाड़ें। ध्यान रहे जड़ वह लेनी चाहिए जो गहरी गई हुई हो, चिकनी व सरल हो, जड़ के टूकड़े काट लें और एक पार्श्व से चीरा देकर अन्दर काष्ठीय भाग पृथक कर दें और छाया शुष्क कर मुख बन्द स्वच्छ पात्रों में अनार्द्र शीतल स्थानों में सुरिक्षत रखें।

निशोथ का उपयोगी भाग (Beneficial Part of Nishoth Plant in Hindi)

प्रयोज्य अंग – मूलत्वक् (जड़ की छाल) ।

निशोथ सेवन की मात्रा :

1 से 3 ग्राम (क्वाथ के लिए 4 -10 ग्राम) विरेचन मात्रा 3 से 6 ग्राम।

प्रयोग विधि :

  1. कृष्ण निशोथ तीव्र होने से मूर्छा,दाह, भ्रम आदि उपद्रव करती है, इसलिए सावधानी से इसका प्रयोग करें।
  2. मरोढ़ न हो, इसके लिए इसके साथ सोंठ, सौंफ आदि सुगन्धित द्रव्य तथा सैन्धव या मिश्री मिलानी चाहिए।
  3. निशोथ के उत्क्लेशकारक दोष के निवारण के लिए मूलत्वक (जड़ की छाल) को बादाम के तैल में स्नेहाक्त कर सकते हैं। इसे हरीतकी के चूर्ण के साथ भी दे सकते हैं। अन्य प्रयोग आगे लिखे गये हैं।
  4. इसके चूर्ण को अधिक बारीक नहीं पीसना चाहिए और न कपड़े में छानना चाहिए। अधिक बारीक होने से यह आमाशय और आंतो में चिपक जाती है। हां यदि इसको माजून (अवलेह) में मिलाना हो तो इसको बारीक पीसकर उपयोग में लाना चाहिए। यह यूनानी चिकित्सकों का मत है।
  5. इसको भूनने से इसका रेचक गुण कम हो हो जाता है।प्रधान मूल को ही प्रयोग में लाना चाहिए। छोटी शाखऐं नहीं। उनके अन्दर के काष्ठ को बाहर करके त्वक् (छाल) को सुखाकर इसे व्यवहार करें।
  6. इसे लेते समय मुख में अधिक देर तक नहीं रखना चाहिए। अधिक देर तक रखने पर यह अरुचि, उत्क्लेशकर होती है।
  7. छोटी मात्रा में यह आमाशय एवं आन्त्र की पाचन शक्ति को बढ़ाती है।
  8. पित्ताधिक्य में इसे मुनक्का के क्वाथ के साथ देना हितावह है।
  9. इसके पत्र शाक का उपयोग, अर्श रोग में होता है।
  10. इसमें कालेदाने की अपेक्षा कम किन्तु रेवन्द चीनी से रेचन शक्ति अधिक है। इसके बीजों का तैल शीतल त्रिदोषहर है।

निशोथ के औषधीय गुण (Nishoth ke Gun in Hindi)

  • रस – तिक्त, कटु, मधुर, कषाया
  • गुण – रूक्ष, लघु, तीक्ष्ण
  • वीर्य – उष्ण
  • विपाक – कटु
  • प्रभाव – विरेचन
  • दोषकर्म – कफपित्त संशोधन
  • गुण प्रकाश संज्ञा – रेचनी,
  • पित्तहरी वीर्यकालावधि – 2 वर्ष
  • प्रतिनिधि – काला दाना, गारीक्न ।

निशोथ का रासायनिक संघटन :

निशोथ की मूलत्वक (जड़ के छाल) में 10 प्रतिशत ग्यलाइको साइडमय राल होती है। इसमें टपैथिन नामक एक ग्लुकोसाइड होता है। इसके कारण ही रेचन की क्रिया होती है। इसके अतिरिक्त दो और ग्लाइकोसाइड, उड़नशील तैल, पीतरंजक द्रव्य (Yallow colouring Matter) आदि होते हैं। यह राल विदेशी जालप (Exogonium Purge) की राल के समान कार्यकारी होता है और उसका उत्तम प्रतिनिधि है।

निशोथ का औषधीय उपयोग (Medicinal Uses of Nishoth in Hindi)

  • निशोथ का मुख्य कार्य अन्नवहस्रोतस् व पुरीष वहस्रोतस पर होता है। जीर्ण आनाह (मलावरोध से पेट का फूलना) , विबन्ध (कब्ज), अर्श (बवासीर), और कामला (पीलिया) में इसका प्रयोग करते हैं।
  • निशोथ का विशेषतः उपयोग उदररोग, वातरक्त, आमवात, कास-श्वास और शोथ रोग में रेचन (दस्त लाना) के लिए इसे उपयोग में लाया जाता है। इससे मल (पुरीष) के द्वारा दोष बाहर निकल जाते हैं।
  • चरक संहिता के कल्पस्थान अध्याय सात में विरेचन कल्पों में मुख्य निशोथ कल्प का वर्णन मिलता है । सुश्रुत संहिता के सूत्रस्थान अध्याय 44 में इसके कल्पों का विवरण प्रस्तुत किया गया है।
  • आचार्य वाग्भट ने अ.ह. के कल्पस्थान अध्याय 2 में विरेचन कल्प में निशोथ (त्रिवृत) का सर्वप्रथम वर्णन किया है ।
  • सामान्यतया विरेचन के चार भेद किये गये हैं – अनुलोमन, संसन, भेदन एवं रेचक। इनमें अनुलोमन संसन मृदुविरेचन के अन्तर्गत आते हैं और भेदन व रेचन तीक्ष्ण विरेचन के अन्तर्गत आते हैं। त्रिवृत् को भगवान चरक ने भेदन के अन्तर्गत कहा है तथा आचार्य शांङ्गधर ने रेचन के अन्तर्गत कहा है ।
  • उदररोगों में त्रिवृतादि चूर्ण, त्रिवतादिषट्पल घृत आदि योग उपयोग में लाये जाते हैं। इसके उपयोग से शरीर का द्रवांश बाहर निकल जाता है। जिससे शोथ भी कम हो जाता है ।
  • उदावर्त (बड़ी आँत का एक रोग) में श्यामादिगण को हितावह कहा गया है। इसमें त्रिवृतादि गुटिका भी प्रशस्त है ।
  • आध्मानादि (पेट फूलना) में भी कोष्ठ शुद्धि के लिए इसको उपयोग में लाया जाता है । पञ्चसम चूर्ण (शा.सं.) शूल, आध्मान, अर्श, उदररोग एवं आमवात को नष्ट करने में श्रेष्ठ है। निशोथ (त्रिवृत) इस चूर्ण का घटक है।
  • पित्तज पाण्डु में तथा कामला (पीलिया) में विरेचन हेतु निशोथ को उपयोग में लाया जाता है ।
  • उर्ध्वग रक्तपित्त में तर्पण के पश्चात् विरेचन करने का विधान है। इस निमित्त चिकित्सा में त्रिवृतादि मोदक की व्यवस्था उपयुक्त होती है।
  • त्रिवतादिघृत आन्त्र रोगों के अतिरिक्त प्रमेह, श्वास, कुष्ठ, अर्श (बवासीर), कामला (पीलिया), पाण्डु, हलीमक (पांडु रोग का एक भेद) , गलगण्ड, अर्बुद (गांठ), विद्रधि (पेट का फोड़ा), व्रण शोथ आदि रोगों में भी कोष्ठशुद्धि के लिए हितावह है।
  • सुश्रुत संहिता के सर्प विष चिकित्सित नामक अध्याय में महाप्रभाव महागद का वर्णन किया गया है। इस अगद की निशोथ प्रथम औषधि है। यह पान, अञ्जन, नस्य रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है।
  • भगन्दर चिकित्सा में उत्साहन कल्कादि उपक्रमों में निशोथ की योजना की गई है।
  • त्रिवृतादि तैल भेदन, रेचन, लेखन, शोथहर होने से विद्रधि, ग्रन्थि, अर्बुद आदि रोगों में भी उपयोगी है। इस तेल का निशोथ भी घटक है।आचार्य वाग्भट ने भी इन रोगों में इसके बाह्याभ्यन्तर उपयोग का निर्देश दिया है।

विरेचन औषधि कब देना चाहिये ? :

विरेचन औषधि देने से पहले यह ध्यान रखना आवश्यक है कि विरेचन निम्नाकिंत स्थितियों में देना चाहिए-

  1. मलावरोध कम करने के लिए तथा आंतों से मल निकालने के लिए।
  2. शोथ (सूजन) कम करने के लिए तथा शरीर से जलीयांश कम करने के लिये।।
  3. रक्तचाप कम करने के लिए।
  4. ज्वर आदि कई रोग दूर करने के लिए।
  5. शरीर से विष निकालने के लिए तथा आंतों के विषाक्त प्रभाव को घटाने के लिए।

विरेचन की विधि :

सामान्यतया अधिक पित्त वाले रोगी को मृदु विरेचन, कफ वाले को मध्यम और वात प्रकृति वाले को तीव्र विरेचन देना पड़ता है। त्रिवृत का उपयोग पित्त व कफ प्रकृति वाले के लिए किंवा मृदु विरेचन व मध्य विरेचन हेतु किया जाना चाहिए। मृदु मध्यम विरेचन हेतु रस की मात्रा न्यूनाधिक्य किया जाता है । दोषों के अनुसार भी इसकी मात्रा एवं संमिश्रण पर विचार करना आवश्यक है। अन्य द्रव्यों से इसे सभी दोषों की वृद्धि में दिया जा सकता है –

  1. पित्त या पित्तप्रधान दोषों में – निशोथ चूर्ण और द्राक्षा क्वाथ का प्रयोग करें। ईख के पदार्थों के साथ, मधुर रसों के साथ या दूध के साथ भी निशोथ का चूर्ण उपयोग में लाया जा सकला है। सामान्यतया पित्तदोष में मधुर शीत द्रव्यों के साथ निशोथ का उपयोग किया जाना चाहिए।
  2. कफ या कफ प्रधान दोषों में – निशोथ चूर्ण को त्रिफला क्वाथ में त्रिकटु व गोमूत्र मिलाकर सेवन करना हितकर है।
  3. वात या वातप्रधान दोषों में – अन्य विरेचन द्रव्य के रस या क्वाथ की भावना दिये निशोथ चूर्ण को सैन्धव व शुण्ठी चूर्ण के साथ सेवन करें। इन तीनों द्रव्यों के मिश्रित चूर्ण का अनुपान अम्लरस (कांजी) होना चाहिए।

ऋतु अनुसार विरेचन योग –

  1. वर्षाऋतु में विरेचन करना उपयुक्त हो तो निशोथ, इन्द्रयव, पिप्पली, शुंठी चूर्ण मधु के साथ द्राक्षा रस में मिलाकर या भावित कर दें।
  2. शरदऋतु में निशोथ, दुरालभा, मोथा, खांड, नेत्रबाला, लालचन्दन, मुलहठी, सातला इन्हें एकत्रकर द्राक्षासव के साथ पिलावें।
  3. हेमन्त ऋतु में निशोथ, चित्रक, पाठा, सफेद जीरा, सरल, वचा, स्वर्णक्षीरीमूल के चूर्ण को उष्ण जल के साथ देवें।
  4. ग्रीष्मऋतु में निशोथ और शर्करा समभाग मिलाकर दें।
  5. शिशिर और बसन्त ऋतु में तथा सभी ऋतुओं में नीचे के दो योग प्रशस्त हैं –
    (a) निशोथ, जयन्ती, हुपुषा, सातला, कुटकी, स्वर्णक्षीरी इनके चूर्ण को गोमूत्र की भावना देकर सुखा लें। यह चूर्ण सभी ऋतु में बरतें।
    (b) निशोथ, श्यामा निशोथ, दुरालभा, इन्द्रयव, गजपिप्पली, नीलिनी, त्रिफला, मोंथा, कुटकी चूर्ण घृत, मांसरस या गरम जल में मिलाकर दें।

रोगोपचार में निशोथ के फायदे (Benefits of Nishoth in Hindi)

1). भगन्दर में निशोथ के इस्तेमाल से फायदा

निशोथ, तिल, दन्तीमूल, सैन्यव चूर्ण को मधु व घृत के साथ मिलाकर व्रण का पूरण कर बन्धन करने से व्रण का शोधन रोपण होता है। ( और पढ़े – भगन्दर को जडमूल से खत्म करेंगे यह 44 आयुर्वेदिक घरेलु उपचार )

2). नाडीव्रण में निशोथ का उपयोग फायदेमंद

  • निशोथ, तिल, कूठ, दन्तीमूल, पिप्पली, सैन्धव, हरिद्रा, त्रिफला, तुत्थ व मधु का कल्क कर बांधने से व्रण का शोधन होता है।
  • निशोथ, तेजबल, दन्तीमूल, रसांजन, हरिद्रा, दारुहरिद्रा, मंजीठ और नीमपत्र का कल्क नाड़ीव्रण का रोपण करने में श्रेष्ठ कहा गया है।

3). घाव (व्रण) ठीक करने में लाभकारी निशोथ

निशोथ, दन्तीमूल, कलिहारी की जड़ और सेंधा नमक समभाग का महीन चूर्ण कर शहद में मिला उसमें स्वच्छ महीन कपड़े की बत्ती भिगोकर व्रण के भीतर रखने से सन्धि और मर्म स्थानों के छोटे मुख वाले व्रण शुद्ध हो जाते हैं।

4). त्रिवृत के लाभदायक विरेचन प्रयोग

  • निशोथ, सैन्धव, पिप्पली चूर्ण देवें। अनुपान उष्ण जल।
  • निशोथ, व द्राक्षा चूर्ण देवें।
  • निशोथ, द्राक्षा, हरीतकी क्वाथ गोमूत्र के साथ पिलायें।
  • निशोथ व त्रिकटु चूर्ण घृत के साथ देवें।
  • निशोथ व सनाय का चूर्ण भी दिया जा सकता
  • निशोथ चूर्ण में आधा भाग सोंठ चूर्ण मिलाकर देना लाभप्रद है।
  • निशोथ, हरीतकी, विडंग, सैन्धव, सोंठ, मरिच चूर्ण गोमूत्र के साथ देना भी हितकारी है।
  • निशोथ, दालचीनी, तेजपात और कालीमिर्च समभाग लेकर खांड व शहद मिलाकर सेवन करने से, सुख पूर्वक विरेचन होता है। यह योग सुकुमार व्यक्तियों के लिए उत्तम होता है।
  • निशोथ 2.5 ग्राम को पानी में पीसकर उसमें थोड़ी सोंठ और सेंधा नमक मिलाकर या शक्कर व कालीमिर्च मिलाकर सुखोष्ण पानी में मिलाकर छानकर देने से सरलता से 2-4 दस्त हो जाते हैं।
  • मिश्री या शर्करा 50 ग्राम में जल मिलाकर चाशनी बनावें, फिर उसमें निशोथ चूर्ण 50 ग्राम मिलाकर ठंडा हो जाने पर उसमें 160 ग्राम शहद मिलाकर उचित मात्रानुसार सेवन करावें। यह पित्तनाशक विरेचन योग है।

( और पढ़े – पंचकर्म चिकित्सा के फायदे )

5). अम्लपित्त में निशोथ सेवन से लाभ

निशोथ चूर्ण को सेंहुड की भावना दें। गीली-गीली ३ ग्राम की मात्रा में उष्ण जल के साथ दें। इससे विरेचन होकर दोष निकलजाने से रोग में लाभ होता है। किन्तु निर्बल रोगी को यह नहीं देना चाहिए।

6). उदावर्त में निशोथ के इस्तेमाल से फायदा

निशोथ 80 ग्राम, पिप्पली 20 ग्राम दोनों का चूर्णकर उसमें 80 ग्राम शर्करा मिलाकर रखें। 3-6 ग्राम तक चूर्ण शहद के साथ भोजन के पूर्व सेवन करने से बिबन्य, उदावर्त व पित्तकफज रोगों में लाभ होता है।

7). उदर रोग में लाभकारी है निशोथ का सेवन

  • निशोथ, चित्रक चूर्ण गोमूत्र से देना हितकारी है।
  • निशोथ, पिप्पली, शर्करा चूर्ण को मथु के साथ दें।
  • निशोथ, विडंग, पुनर्नवा, चित्रक चूर्ण को दुग्य के साथ दें।
  • निशोथ कल्क को दूध में मिलाकर देने से भी विकृति पित्त निकल जाने से उदररोग मिटता है। यह पित्तोदर में उपयोगी है।
  • निशोथ, गिलोय और त्रिकटु का क्वाथ जलोदर रोगी के लिए लाभप्रद है। इसमें दुग्थाहार पर ही रोगी को रखना चाहिए।

( और पढ़े – पेट की बीमारी : कारण, सावधानियाँ और बचाव के उपाय )

8). सूजन (शोथ) मिटाए निशोथ का उपयोग

  • निशोथ व त्रिफला का क्वाथ सेवन कराना हितकर है।
  • निशोथ, मरिच, पिप्पली, सोंठ, चित्रक को दूध में पकाकर सेवन करने से भी शोथ का शमन होता है।

9). पाण्डु रोग में फायदेमंद निशोथ का औषधीय गुण

  • निशोथ चूर्ण में दुगनी शर्करा मिलाकर सेवन करें।
  • निशोथ से आधा भाग गोखरु लेकर चूर्ण बनालें। एक-एक ग्राम चूर्ण दिन में 2-3 बार सेवन करने से भी पाण्डु का क्षय होता है। इसका अनुपान गरम जल देना चाहिए।

10). वातरक्त मिटाए निशोथ का उपयोग

  • निशोथ चूर्ण को धारोष्ण दूध के साथ पिलावें।
  • निशोथ, बिदारीकन्द और तालमखाने का क्वाथ भी वातरक्त में हितावह है।

11). विषमज्वर में आराम दिलाए निशोथ का सेवन

  • निशोथ चूर्ण में थोड़ा सोंठ चूर्ण मिलाकर सेवन करने से जीर्ण विषमज्वर शान्त होता है।
  • निशोथ चूर्ण को मधु से चाटना भी लाभप्रद
  • निशोथ, सोंठ, लौंगग, धनियां चूर्ण सुखोष्ण जल से सेवन करने से विषमज्वर, अजीर्ण, अग्निमांद्य, श्वास आदि रोग नष्ट हो जाते हैं।

12). दुर्जल जनित ज्वर में निशोथ के प्रयोग से लाभ

निशोथ, सुगन्धवाला, चिरायता, पिप्पली, विडंग, सोंठ, कुटकी चूर्ण को मधु के साथ सेवन करने से दुर्जलजनित ज्वर शान्त होता है।

13). उर्ध्ववात ठीक करे निशोथ का प्रयोग

निशोथमूल को दूध में पीसकर उसमें वासास्वरस मिलाकर पिलाना हितकारी है।

4). हृदयरोग में लाभकारी है निशोथ का सेवन

निशोथ, कचूर, रास्ना, बड़ और कूठ का समभाग चूर्ण 6 ग्राम गोमूत्र के साथ सेवन करने से कफजन्य हृदयरोग मिटता है।

15). खांसी (कास) रोग में निशोथ से फायदा

आमाशय की विकृति से कास होने पर निशोथ चूर्ण मधु के साथ देना चाहिए।

16). कृमि रोग मिटाए निशोथ का उपयोग

निशोथ, त्रिफला और विडंग चूर्ण गरम पानी से दें।

17). आध्मान (पेट फूलना) में निशोथ के सेवन से लाभ

निशोथ चूर्ण मधु के साथ, सोंठ चूर्ण के साथ दें।

18) आमवात में फायदेमंद निशोथ का औषधीय गुण

निशोथ चूर्ण 3 ग्राम, सेंधा नमक 500 मि.ग्रा. और सोंठ 500 मि.ग्रा. का चूर्ण छाछ के साथ पीने से विरेचन होकर आमवात मिटता है।

19). दाह में लाभकारी निशोथ

निशोथ, हरड और तुलसी के क्वाथ में एरण्ड तैल निलाकर सेवन करने से विरेचन होकर दाह, शोथ व उदररोगों में लाभ होता है।

20). परिणामशूल मिटाता है निशोथ

निशोथ, पिप्पली और हरड़ चूर्ण में गुड़ मिलाकर वटिका बनाकर उष्ण जल से सेवन
करने पर परिणामशूल (रोग जिसमें भोजन करने के उपरांत पेट में पीड़ा होने लगती है) का शमन होता है।

21). मोटापा (मेदोरोग) दूर करने में निशोथ फायदेमंद

निशोथ चूर्ण को गोमूत्र के साथ या मधुढक (शहद में पानी मिलाकर) के साथ सेवन करने से शनैः शनैः मेद कम होकर स्थूलता में कमी होती है।

22). कुष्ठरोग दूर करे निशोथ का प्रयोग

कुष्ठरोग में विरेचन का अधिक महत्व है अतः निशोथ, मंजीठ और खदिर, सारिवा का क्वाय विशेषतया उपयोगी होता है।

23). रक्तपित्त की लाभकारी औषधि है निशोथ

निशोथ चूर्ण में शर्करा मिलाकर मधु से चाटने से उर्ध्वगामी रक्तपित्त विरेचन होने से शान्त होता है।

24). नाड़ीव्रण ठीक करे निशोथ

रोगी को कुछ दिनों तक प्रातः निशोथ का चूर्ण त्रिफला के क्वाथ के साथ सेवन कराने से पुराने दुष्टव्रण, नाड़ीव्रण, अर्बुद (गांठ), अन्तर्विद्रधि (अंदर का फोड़ा), पित्तजगुल्म (पित्त की अधिकता से पेट फूलना) आदि रोग दूर होते हैं।

25). विषरोग मिटाए निशोथ का उपयोग

विषरोगों में भी विरेचन के लिए उपयुक्त अनुपान से दोषों को बाहर निकालने में निशोथ का उपयोग किया जाता है।

उक्त वर्णित सामान्य प्रयोग प्रकरण में रोगानुसार निशोथ के उपयोग का प्रयोजन मुख्यतः विरेचन ही समझना चाहिए। जहां पर विरेचन की आवश्यकता नहीं समझी जाय, वहां इसको उपयोग में नहीं लाना चाहिए।
निशोथ एक विरेचन की औषधि हो और विरेचन पित्त की चिकित्सा है, अतः उक्त रोगों में पित्ताधिक्य होने की स्थिति में ही इसका उपयोग करें। यह कफ का भी शोधन करती है और कफाधिक्य में भी लाभप्रद है।

निशोथ से निर्मित आयुर्वेदिक दवा (कल्प) :

क्वाथ –

निशोथ, इन्द्रायण की जड़,कुटकी, त्रिफला, और अमलतास के क्वाथ में यवक्षार मिलाकर सेवन करने से विरेचन होकर समस्त ज्वर नष्ट होते हैं।

कल्क –

निशोथ, ढाक के बीज, खुरासानी अजवाइन, कबीला, बायविडंग और गुड़ इन समस्त द्रव्यों को समान मात्रा में लेकर कल्क बनावें (जल के संयोग से बनावें) इस कल्क को तक्र (छाछ) के साथ सेवन करने से उदरकृमि नष्ट होते हैं। कल्क मात्रा में 10-12 ग्राम है।

चूर्ण –

  • त्रिकटु, त्रिफला, इलायची, नागरमोथा, बायविडंग और तेजपात 1-1 भाग तथा लौंग सबके बराबर एवं निशोथ सबसे दुगनी लेकर चूर्ण बनालें । 6 ग्राम तक वह चूर्ण उष्ण जल के साथ पीने से विरेचन होकर पेट साफ हो जाता है।
  • निशोथ 3 भाग, त्रिफला 3 भाग, यवक्षार, पिप्पली और बायविडंग 1-1 भाग इनका चूर्ण शहद और घृत के साथ चाटने से कफज गुल्म, प्लीहोदर, हलीमक (भ्रम) व अन्य रोगों का भी नाश होता है। इस चूर्ण में गुड़ मिलाकर गुटिका भी बनाई जा सकती है। – सु. सं. सू.
  • निशोथ, इन्द्रायण, मुलहठी, हरिद्रा, दारुहरिद्रा, मंजीठ, पांचों नमक, सोंठ, मिर्च और पीपल सबका बारीक चूर्ण बनाकर वस्त्र से छानकर कांच की शीशी में रख लें। विष का वेग दूर करने के लिए इक पान, अजन व नस्य के रूप में उपयोग में लाया जाता है। यह महागद चूर्ण अत्यन्त प्रभावशाली औषध है। -सुश्रुत सं.क

वटी –

  • निशोथ, 2 भाग, पिप्पली 4 भाग तथा हरड 5 भाग सबको चूर्ण कर सबके समान मात्रा में गुड़ के साथ मिश्रण कर गोली बनालें। इसके सेवन से कोष्ठबद्धता दूर होकर उदावर्त रोग (बड़ी आँत का एक रोग) मिटता है। इन गोलियों को लगभग 3 ग्राम की मात्रा में सेवन करना चाहिए। – च. द.
  • निशोथ, बड़ी हरड़, काली निशोथ सबका चूर्ण कर थूहर के दूध की भावना देकर 210 मि.ग्रा. की वटी बनालें। यह गोमूत्र के साथ सेवन करने से आनाह (आफरा) को दूर करने में श्रेष्ठ है।

अवलेह –

शक्कर 162 ग्राम और शहद 162 ग्राम को कलईदार वर्तन में थोड़ा जल देकर पकावें । जब अवलेह बनने योग्य चाशनी हो जाय तब उसको नये मिट्टी के बर्तन में छोड़ उसमें निशोथ 144 ग्राम, दालचीनी 12 ग्राम, तेजपात 12 ग्राम और कालीमिर्च 12 ग्राम इनका सूक्ष्म कपड़छन चूर्ण मिलाकर लेह बनालें।
मात्रा, अनुपान और उपयोग – 6 ग्राम से 12 ग्राम गरम जल के साथ प्रातःकाल में लेने से 2-3 दस्त बिना कष्ट के हो जाते हैं। – च. सं.

घृत

निशोथ, मुलैठी, सुगन्धवाला नागरमोथा, अजवायन, काली निशोथ, विदारीकन्द, सोंफ, पिप्पली और कुड़ाछाल 24-24 ग्राम, इनका कल्क तथा घृत, दूध शतावर का रस1-1 किलो तथा दही 4 किलो सबको एकत्र मिलाकर घृत सिद्ध कर लें। (मात्रा 6 ग्राम से 12 ग्राम तक) सेवन से समस्त आन्त्र रोग (आन्त्र वृद्धि आदि) बीस प्रकार के प्रमेह, श्वास, कुष्ठ, अर्श, कामला, हलीमक, पाण्डुरोग, गलगण्ड, अर्बुद, विद्रधि, व्रणशोथ आदि रोग नष्ट होते हैं।

शर्बत

निशोथ 35 ग्राम, अफसनतीनरुमी 17.5 ग्राम तथा गुलाब पुष्प 17 ग्राम। सबके जौकुट चूर्ण को 2 किलो जल में उबालकर छानकर 1 किलो खांड़ मिलाकर शर्बत की चाशनी तैयार कर लें।
मात्रा – 24 से48 मि.ली. । यह आमाशय तथा यकृत के दोषों को दूर करता है। इस योग का नाम शरबत अफसनतीन दिया है। – सू. चि. सा.

आसव

निशोथ और जुलाफा 1-1 भाग दोनों के चूर्ण को एक बोतल में भर उसमें 12.5 भाग मद्य (70 से 60 प्रतिशत वाली) मिला अच्छी तरह हिला कार्क लगाकर रखें ।7 या 15 दिन के बाद अच्छी तरह निचोड़कर छानकर रखें।
मात्रा – 2 ग्राम से 8 ग्राम तक । प्रत्येक प्रकार के विष्टब्ध (कोष्ठबद्धता) के लिए यह उत्तम विरेचनीय है। जलोदर में भी लाभकारी है ।

अरिष्ट

निशोथ 768 ग्राम कूटकर 15 किलो जल में पकावें। पौने चार किलो जल शेष रहने पर छानकर संधान पात्र में भर उसमें गुड़ 2.5 किलो और मुलैठी120 ग्राम चूर्ण कर मिला दें। तथा विधि संधान कर 2 मास तक सुरक्षित रखें। फिर छानकर काम में लावें।
मात्रा –12 मि.ली. से 48 मिलि. तक प्रातःकाल खाली पेट थोड़े जल के साथ रोगी की प्रकृति का विचारकर सेवन कराने से उत्तम विरेचन होकर उदर रोग, संग्रहणी, गुल्म शोथ, पाण्डु आदि दूर होते हैं। पेट साफ हो जाता है। – वृ. आ. अ. सं.

वर्ति

निशोथ (काली), पिप्पली, दन्तीमूल, और नील की जड़ 1-1 भाग, सेंधानमक 2 भाग तथा उड़द का आटा 10 भाग सबके चूर्ण को एकत्र कर वर्ति बनाने योग्य गुड़ मिला गोमूत्र में पीसकर अंगूठे के बराबर की वर्ति बनालें । इनमें एक बत्ती को घी लगाकर रोगी के मल मार्ग में रखने से उदावर्त रोग नष्ट होते है। – चरक संहिता

निशोथ के दुष्प्रभाव (Nishoth ke Nuksan in Hindi)

  • निशोथ का अधिक सेवन आतों के लिए तथा उष्ण प्रकृति वालों को यह हानिकारक है।
  • निशोथ के सेवन से पहले अपने चिकित्सक से परामर्श करें ।
  • निशोथ को डॉक्टर की सलाह अनुसार ,सटीक खुराक के रूप में समय की सीमित अवधि के लिए लें।

दोषों को दूर करने के लिए : इसके दोषों को दूर करने के लिए बादाम तैल, कतीरा, बबूल की छाल का उपयोग हितकर है।

(अस्वीकरण : दवा ,उपाय व नुस्खों को वैद्यकीय सलाहनुसार उपयोग करें)

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